गर्भधारण कैसे होता है? गर्भ स्थापना होने के 10 लक्षण क्या है

गर्भधारण कैसे होता है?

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गर्भधारण कैसे होता है? गर्भ स्थापना होने के 10 लक्षण,गर्भधारण होने के लक्षण

महिला के फैलोपियन ट्यूब में डिम्ब के पुरुष के शुक्राणु से संयोग होने से गर्भ ठहरता है। ये शुक्राणु संभोग के दौरान वीर्य के साथ आते हैं। गर्भधारण एक जटिल प्रक्रिया है। मासिक धर्म चक्र के आरम्भ में डिम्ब ग्रंथि की एक पुटिका में एक नया डिम्ब तैयार होने लगता है। चक्र के मध्य में पुटिका फट जाती है और डिम्ब मुक्त हो जाता है। इस प्रक्रिया को डिम्बक्षरण कहते हैं।

14वें दिन तक गर्भाशय रेखा घनी हो जाती है और गर्भाशय गर्भाधान हो चुके डिम्ब को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है। इस बीच डिम्ब महिला की Peritoneal Cavity में प्रवेश कर जाता है। वहां फैलोपियन ट्यूब के एक छोर पर मौजूद स्पर्शिकाएं (Tentacles) डिम्ब को ग्रहण कर लेती हैं और उसे ट्यूब में प्रवेश करा देती हैं। ट्यूब की अंदरूनी दीवार डिम्ब के गर्भाशय की ओर जाने में सहायक होती है। अगर इस मौके पर संभोग हो तो डिम्ब में गर्भाधान हो सकता है।

चरम यौन सुख के समय होने वाले स्खलन के जरिए पुरुष के लिंग से औसतन 30 करोड़ शुक्राणु स्त्री की योनि में प्रवेश करते हैं। इनमें से अधिकांश स्त्री के प्रजनन क्षेत्र में एक से पांच घंटे तक घूमते रहने के बाद नष्ट हो जाते हैं। योनि में मौजूद अम्ल आधे। शुक्राणुओं को मार डालता है। बाकी शुक्राणु ग्रीवा में प्रवेश कर जाते हैं, जहां वे सामान्यतः अभेद्य श्लेष्मा से आसानी से गुजर जाते हैं, ऐसा डिम्बक्षरण द्वारा पैदा की गई स्थिति के कारण सम्भव होता है। शुक्राणु तैरते हुए गर्भाशय में पहुंच जाते हैं। वे आठ मिनट में एक इंच की रफ्तार से आगे बढ़ते हैं। मरे शुक्राणु भी जीवित शुक्राणुओं की रफ्तार से ही आगे बढ़ते हैं।

करीब 3000 शुक्राणु ही फैलोपियन ट्यूब द्वारा उस हिस्से में पहुंचते हैं, जहां डिम्ब होता है। डिम्ब तक पहुंचते-पहुंचते कुछ सौ शुक्राणु ही जीवित बचते हैं और डिम्ब में तो सामान्यतः एक ही शुक्राणु प्रवेश करता है जिससे एक जीवन की शुरुआत होती है। डिम्बक्षरण के तीन दिन पहले और इसके एक दिन बाद योनि में पहुंचे शुक्राणु से ही गर्भाधान सम्भव है।

गर्भधारण होने के लक्षण:-

गर्भधारण होने से मुंह में बार-बार थूक आना, शरीर में भारीपन, अंगों में शिथिलता, तन्द्रा, ग्लानि, हृदय में व्यथा, तृप्ति, गर्भ में शुक्राणु व डिम्ब के संयोग हो जाने से गर्भ स्थापित हो जाने के लक्षण हैं।

ऐसे लक्षण गर्भधारण स्थापित होते ही तत्काल प्रकट नहीं होते, इसकी अवधि गर्भस्थापना होने से लेकर छः सप्ताह तक की होती है। पहली सन्तान के समय पति-पत्नी यह जानने के लिए उत्सुक रहते हैं कि गर्भ स्थापना हुई या नहीं। यह कैसे पता चले ? आजकल आधुनिक चिकित्सा विज्ञान 1-2 माह में परीक्षण करके बता देता है कि गर्भ है या नहीं। छः सप्ताह के अन्दर अन्दर ऊपर बताए गए लक्षण प्रकट होने से भी यह ज्ञात हो जाता है कि गर्भ स्थापित हो गया है। प्रातः काल जी मिचलाना या घबराहट-सी होना, उलटी जैसा जी होना, उबकाई आना भी गर्भाधान हो जाने के प्रमुख लक्षण हैं।

गर्भधारण में गर्भवती स्त्री के लक्षण:-

जब स्त्री गर्भवती हो जाती है तब उसके स्तनों के मुख (चूचुक) धीरे-धीरे श्याम वर्ण के होने लगते हैं। जब तब रोंगटे खड़े (रोमांच का अनुभव) होना, पलकें फड़फड़ाना, अच्छा भोजन करने पर भी (विशेषकर प्रातः काल) उबकाई आना या उलटी होना, अच्छी गन्ध वाले द्रव्यों को सूंघने से भी चित्त उद्विग्न होना, मुख से लार टपकना, जी मिचलाना, शरीर में आलस्य, शिथिलता और भारीपन का अनुभव होना, ये सब गर्भवती स्त्री के लक्षण होते हैं।

गर्भधारण होने के बाद जैसे-जैसे दिन व्यतीत होते हैं, वैसे-वैसे ऐसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं जिनसे यह तथ्य प्रकट हो जाता है कि स्त्री गर्भवती है। ऊपर बताए गए लक्षणों के अलावा ऋतुस्राव न आना, भूख में कमी, भोजन में अरुचि, खट्टे व चटपटे पदार्थ खाने की तीव्र इच्छा, होंठों में सांवलापन आना, पैरों में भारीपन महसूस होना आदि लक्षण भी प्रकट होते हैं। यह जरूरी नहीं कि सभी स्त्रियों में ये सभी लक्षण प्रकट होते ही हों पर अधिकांश लक्षण जरूर पाए जाते हैं।

सामान्य धारणा के अनुसार ऋतुस्राव बंद होने को गर्भवती( गर्भधारण) होने का लक्षण माना जाता है, परंतु कभी-कभी अन्य कारणों जैसे- शारीरिक दुर्बलता व शारीरिक आघात से भी ऐसा हो सकता है। दूसरी ओर ऐसे मामले भी सामने आये हैं जिनमें दो महीने व उससे भी अधिक महीनों तक ऋतुस्राव बन्द नहीं हुआ। इसी प्रकार ‘वमन’ के संदर्भ में भी आधुनिक मनोवैज्ञानिकों मान्यता है कि यह उसी को ज्यादा होते हैं, जो गर्भाधान की घटना से भयभीत होती है।

जो महिलाएं ऑफिस आदि कार्यों में व्यस्त रहती हैं, उनके मामले में यह गर्भधारण के लक्षण उस रूप में नहीं प्रकट होता। ‘वमन’ जैसे लक्षणों का संबंध शारीरिक से ज्यादा मनोवैज्ञानिक है। क्योंकि इन दिनों में स्तनों के आकार-प्रकार में भी परिवर्तन होते हैं, इसलिए महिलाओं को इस संदर्भ में भी सावधान रहना चाहिए। स्तन विकसित होते हैं, रक्त का संचार इस प्रदेश में होना शुरू हो जाता है, दुग्ध ग्रंथियों में विकास होता है। कुछ महिलाओं के स्तनों पर नीली रेखाएं स्पष्ट उभर आती हैं। क्योंकि इस दौरान स्तनों में कसाव आ जाता है, इसलिए ऐसी ब्रा पहनना उचित है जो कसी हुई न हो। ढीले कपड़े पहनें तो ज्यादा उपयुक्त है।

गर्भधारण अवस्था में कुछ महिलाओं के स्तनों से दूध-सरीखा द्रव सहज रूप में बहने लगता है। कभी-कभी तो उससे पहनी ब्रा या ब्लाउज अच्छा-खासा गीला हो जाता है। ऐसे में सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए। हल्की-सी भी बरती गयी उपेक्षा किसी रोग का कारण बन सकती है।

गर्भधारण में गर्भ को हानि पहुंचाने वाले कार्य:-

कठिन आसन में बैठना, ऊंचे-नीचे आसन पर बैठना या लेटना, वायु, मल मूत्रादि के अधारणीय (न रोकने योग्य) वेगों को बलपूर्वक रोकना, तीखे व गर्म प्रकृति के द्रव्यों का सेवन करना, अल्प मात्रा में और पोषक तत्वों से रहित आहार लेना, ऊंचे-नीचे रास्ते पर चलना, झटके से उठना-बैठना या सीढ़ी पर चढ़ना, उतरना, झटके व हिचकोले लगने वाली सवारी या वाहन पर बैठना, यात्रा करना, कलह और लड़ाई-झगड़ा करना,

अत्यधिक चिन्ता, क्रोध या शोक करना, सहवास करना, कामुक चिन्तन करना, अधिक सोना, दिन में सोना, किसी एक ही रस वाले आहार का अधिक और लगातार सेवन करना, मांस-मदिरा का सेवन करना, भूखे प्यासे रहना, पाचन क्रिया बिगाड़ लेना, कब्ज रहने देना आदि कार्य गर्भ और गर्भवती दोनों के लिए हो हानिकारक होते हैं।

इन कार्यों के फलस्वरूप गर्भपात भी हो जाया करता है जिससे गर्भ तो नष्ट होता ही है, स्त्री के शरीर और स्वास्थ्य को भी ऐसी हानि पहुंचती है कि जिसकी क्षतिपूर्ति बड़ी मुश्किल से, विशेष देखभाल होने और उचित चिकित्सा होने पर ही हो पाती है, लिहाजा गर्भवती स्त्री को इन सब हानिकारक कामों से बचना चाहिए।

गर्भ की रक्षा करने वाले कार्य:-

उत्तम गुण युक्त स्वस्थ सन्तान को जन्म देने की इच्छा रखने वाली स्त्री को अहितकारी कार्य एवं आहार-विहार को बिल्कुल त्याग देना चाहिए और हानिकर कार्यों से विपरीत यानी हितकारी और उचित आहार-विहार करने का प्रयत्न पूरे गर्भकाल में करते रहना चाहिए। ऐसा करने पर गर्भवती स्त्री उचित समय पर, सुखपूर्वक, स्वस्थ और अच्छी सन्तान को जन्म दे सकेगी और स्वयं भी स्वस्थ बनी रह सकेगी।

गर्भधारण में गर्भवती की इच्छापूर्ति आवश्यक:-

गर्भस्थ शिशु जब गर्भ में चार माह का हो जाता है तब उसके सभी अंग प्रत्यंग बनकर स्पष्ट हो जाते हैं और हृदय बन जाने से चेतना धातु व्यक्त होती है इसीलिए गर्भवती स्त्री को, दो हृदय वाली होने से ‘दौर्हदिनी’ कहा जाता है। दौर्हदिनी की इच्छा को ‘दौहंद’ कहते हैं।

गर्भधारण में गर्भवती के ‘दौईद’ (इच्छाओं) की पूर्ति अवश्य करनी चाहिए ताकि उसका मन प्रसन्न और सन्तुष्ट रहे, इससे गर्भस्थ शिशु पर अच्छा प्रभाव पड़ता है अन्यथा बुरा प्रभाव पड़ता है। गर्भवती को अच्छी, हितकारी और उपयोगी इच्छाओं का पालन अवश्य करना चाहिए।

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